है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और

ये क़िता "ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग" आपने गुलज़ार साहब द्वारा रचित TV show या उनकी किताब “मिर्ज़ा ग़ालिब” में ज़रूर पढ़ा या सुना होगा जो ग़ालिब ने आखिरी मुग़ल बादशाह को अपने हालात का बखान करते हुए लिखा था। वैसे तो यह क़िता आप रेख़्ता पर उर्दू में पढ़ सकते हैं पर क्योंकि बहुत से लोगों को उर्दू पढ़नी नहीं आती है, इसलिए मैनें इसका देवनागरी में अनुवाद कर दिया। साथ ही कुछ कठिन शब्द हैं जिनका मतलब मैनें नीचे दे दिया है।

है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और

करते हैं मोहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और

या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात

दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और

अबरू से है क्या उस निगह-ए-नाज़ को पैवंद

है तीर मुक़र्रर मगर इस की है कमाँ और

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे

ले आएँगे बाज़ार से जा कर दिल ओ जाँ और

हर चंद सुबुक-दस्त हुए बुत-शिकनी में

हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और

है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता

होते जो कई दीदा-ए-ख़ूँनाबा-फ़िशाँ और

मरता हूँ इस आवाज़ पे हर चंद सर उड़ जाए

जल्लाद को लेकिन वो कहे जाएँ कि हाँ और

लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका

हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन

करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले

रुकती है मिरी तब्अ’ तो होती है रवाँ और

हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और

-मिर्ज़ा ग़ालिब