गली का कुत्ता

सुबह से यह कुत्ता इसी गली के चक्कर काट रहा है। कोई मूर्ख गाड़ी चढ़ा गया है, तबसे बेचारा यूँ ही रोता हुआ घूम रहा है।

सुबह से यह कुत्ता इसी गली के चक्कर काट रहा है। कोई मूर्ख गाड़ी चढ़ा गया है, तबसे बेचारा यूँ ही रोता हुआ घूम रहा है। कभी किसी दूकान में घुस जाता है, कभी किसी घर में। हर जगह खून-खून करा हुआ है। लोगों ने आज-कल के प्रचलन में जानवरों को केवल कैद में रखकर पालना सीखा है, उनसे प्रेम करना यह अभी तक नहीं सीख पाए। कुत्ता बेचारा जहाँ-जहाँ बैठा वहीं से दुत्कार दिया गया। 

आखिर वह तंग आकर इस गली से बाहर निकल गया। निकलकर पहले तो वह गली के मोड़ पर ही बैठा रहा पर गाड़ियों को देखकर डर गया और खुदको घसीटता हुआ बड़े यत्न करके दूसरी गली में ले आया। थोड़ी सी दया-भावना की आस उसके मन में जगी पर जल्द ही मर गयी। यहाँ भी सब निर्दयी लोग ही थे। कुत्ता बेचारा जिसके भी दर पे जाता वही लाठी, डंडों से डराकर, कभी दुत्कार कर उसे भगा देते। कल जब तक वह स्वस्थ और आत्मनिर्भर था तब तक लोग कभी कभार रोटी डाल भी देते थे। पर सुबह जब से उसके यह चोट लगी और वह मदद के लिए भटकने लगा तो लोग उसको भगाने लगे, मानो वह कोई पागल हो चुका है और अभी काटने को दौड़ेगा। बेचारा कुत्ता लात खाते-खाते और भटकते-भटकते थक गया और वही के एक खण्डर से टूटे-फूटे घर में छुपकर बैठ गया। कुछ देर तो बैठ सका पर फिरसे उठने का समय हो गया था। वह वहां से भी भगा दिया गया और अब वह दो-तीन गालियाँ छोड़कर अगले मोहल्ले में जा बैठा जहाँ लोगों की आबादी अभी कम थी। 

यहाँ का माहौल थोड़ा ठीक था। अगर कोई मदद नहीं कर रहा था तो कोई भगा भी नहीं रहा था। कुत्ता यहीं बैठ गया। अब उसमें इतनी जान न बची थी की किसी के दर जाकर मदद माँगता, खून रिसने और दर्द के कारण उसके पीछे के दोनों पैर ज़मीन पर घिसट रहे थे। सो कुत्ता वही बैठ गया। 

अब वह खुदसे हार चुका था। उसको मृत्यु की अनुभूति हो चुकी थी और मृत्यु की अनुभूति होने के बाद आत्मशक्ति भी कुछ काम की नहीं रहती। उसके बाद कोई आशा, कोई अभिलाषा नहीं रह जाती। कुत्ता वही बैठा-बैठा अपना समय गिनने लगा। और इसी तरह हताश बैठे-बैठे उसे शाम हो गयी परन्तु मौत सामने कड़ी हुई भी उसके प्राण न हर सकी। शाम तक वह रोता रहा, कराहता रहा पर प्राण न निकले। जब रोता-रोता थक गया तो गर्दन नीची करके शांत भी लेट गया। शरीर अकड़ने भी लगा पर प्राण देह छोड़ने को तैयार न थे। 

शाम को 5-6 बजे जब आस्था, कॉलेज से वापस आयी और कुत्ते का ऐसा हाल देखा तो वह भागकर पहले उसके लिए पानी लायी। उसको जानवरों से बहुत ज्यादा प्रेम था। पानी पिलाते-पिलाते सोचने लगी की क्या करना चाहिए। पर इतने में कुछ सोचती, तब तक तो कुत्ते के प्राण-पखेरू उड़ गए। पानी पीते-पीते ही उसने दम तोड़ दिया। 

कुत्ता बेचारा केवल थोड़े से पानी और प्रेम के लिए सुबह से दौड़ रहा था। उसका मन केवल प्रेम की ही आस में इतने कष्ट सहता रहा। एक अंतिम इच्छा ने उसके प्राण न निकलने दिए, और उसकी वेदनाओं को, व्यथाओं को जीवित रखा।