ग़ज़ल- एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो

एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो, राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो। मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है, है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।
एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।

मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।

अब दीद कहाँ से हों कि हैं चश्म खूँ से तर,
हैं चश्म खूं से तर हुआ जैसे कि 'अमा हो।

हर चंद मिरा दिल हुआ जाता है निशाना,
शमशीर लिए बैठा है आज़ार, भला हो।

है लम्स से अपने वो बदन ऐसे लरज़ता,
जैसे कभी उसने यूँ शरारत करी ना हो।

थे राज़ छुपाए कई तुझसे भी दिल-ए-ज़ार,
है कौन भला चाहता की दिल में 'अना हो।

महफूज़ रहे वो यही हैं हम दुआ करते,
दुख ही न दे ऐसा कोई हम-राह कहाँ हो।

आवाज़ सुनी हमने उसी सम्त से कोई,
और ऐसी सुनी जैसे कोई गीत सुना हो।

कोई तो हमें भी कभी आवाज़ दे यूँ ही,
अल्फाज़ों में हमको भी कभी इश्क अता हो।

है मुफ्लिसों का काम कहाँ इश्क निभाना,
जब हिज्र ही किस्मत हो, शब-ए-वस्ल कहाँ हो।

यूँ तो छुए हैं ख्वाब कई पलकें भिगोकर,
सो, सोचता हूँ अबके तुम्हें मांगू तो क्या हो।

मुझको हैं गवारा चलो ये हिज्र ये आलम,
हूँ चाहता खुशियों से ही ये रस्म अदा हो।

ऐ गर्दिश-ए-अय्याम भला चाहती है क्या,
मुफ्लिस करा तब मुझको, अभी क्या पता क्या हो।

हैं छेड़ रहे क्यों भला वो तज़्किरे मेरे,
मोड़ा था रुख ऐसे कि कोई रब्त ही ना हो

-क़लमकश