ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग
ये क़िता “ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग” आपने गुलज़ार साहब द्वारा रचित TV show या उनकी किताब “मिर्ज़ा ग़ालिब” में ज़रूर पढ़ा या सुना होगा जो ग़ालिब ने आखिरी मुग़ल बादशाह को अपने हालात का बखान करते हुए लिखा था। वैसे तो यह क़िता आप रेख़्ता पर उर्दू में पढ़ सकते हैं पर क्योंकि बहुत से लोगों को उर्दू पढ़नी नहीं आती है, इसलिए मैनें इसका देवनागरी में अनुवाद कर दिया। साथ ही कुछ कठिन शब्द हैं जिनका मतलब मैनें नीचे दे दिया है।
ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग,
ऐ जहाँदार-ए-आफताब आसार,
था मैं एक बे-नवा-ए-गोशा-नशीं,
था मैं एक दर्द मंद सीना-ए-फिगार,
तुमने मुझको जो आबरू बख़्शी,
हुई मेरी वो गर्मी-ए-बाज़ार,
कि हुआ मुझसा ज़र्रा-ए-नाचीज़,
रू-शनास-ए-सवाबित-ओ-सय्यार,
गरचे अज़ रू-ए-नंग-ए-बे-हुनरी,
हों खुद अपनी नज़र में इतना ख़्वार,
के गर अपने को मैं कहूँ ख़ाकी,
जानता हूँ के आए खाक को ‘आर,
शाद हूँ लेकिन अपने जी में कि हूँ,
बादशाह का ग़ुलाम कार-गुज़ार,
खानाज़ाद और मुरीद और मद्दाह,
था हमेशा से ये ‘अरीज़ा गुज़ार,
बारे नौकर भी हो गया सद-शुक्र,
निस्बतें हो गयीं मु'अय्यन चार,
न कहूँ आपसे तो किससे कहूँ,
मुद्दा-ए-ज़रूरी-ए-इज़हार,
पीर-ओ-मुर्शिद अगरचे मुझको नहीं,
ज़ौक़-ए-आराइश-ए-सरूद-ओ-सितार,
कुछ तो जाड़े में चाहिए आखिर,
ता न दे बाद-ए-ज़महरीर आज़ार,
क्यों न दरकार हो मुझे पोशिश,
जिस्म रखता हूँ अगरचे नज़ार,
कुछ खरीदा नहीं है अबके साल,
कुछ बनाया नहीं है अबकी बार,
रात को आग और दिन को धूप,
भाड़ में जाएँ ऐसे लैल-ओ-नहार,
आग तापे कहाँ तलक इंसाँ,
धूप खावे कहाँ तलक जाँदार,
धूप की याबिस, आग की गरमी,
वक़िना रब्बना ‘अज़ाब उलनार,
मेरी तनख्वाह जो मुकर्रर है,
उसके मिलने का है अजब हंजार,
रस्म है मुर्दे की छ-माही एक,
खल्क का है इसी चलन पे मदार,
मुझको देखो तो हूँ ब-क़ैद हयात,
और छ-माही हो साल में दो बार,
बस के लेता हूँ हर महीने कर्ज़,
और रहती है सूद की तकरार,
मेरी तंख्वाह में तिहाई का,
हो गया है शरीक साहूकार,
आज मुझ सा नहीं ज़माने में,
शाइर नग़्ज़गो-ए-ख़ुश-गुफ़्तार,
रज़्म की दास्तान गर सुने,
है ज़बाँ मेरी तेग़-ए-जौहर-दार,
बज़्म का इल्तज़ाम गर कीजिए,
है कलम मेरी अब्र-ए-गौहर-बार,
ज़ुल्म है गर न दो सुख़न की दाद,
क़हर है गर करो न मुझको प्यार,
आपका बंदा और फिरूँ नंगा,
आपका नौकर और खाऊँ उधार,
मेरी तंख्वाह कीजिए माह-ब-माह,
ता न हो मुझको ज़िंदगी दुश्वार,
खत्म करता हूँ अब दुआ पे कलाम,
शाइरी से नहीं मुझे सरोकार,
तुम सलामत रहो हज़ार बरस,
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।
-मिर्ज़ा ग़ालिब
- शहनशाह-ए-आस्माँ: आसमान का सम्राट।
- जहाँदार-ए-आफताब: सूर्य का शासक या दुनिया का मालिक।
- आसार: संकेत, निशान, प्रभाव।
- बे-नवा-ए-गोशा-नशीं: एकांत में रहने वाला निर्धन या विपन्न व्यक्ति।
- सीना-ए-फिगार: घायल दिल या सीना।
- दर्द मंद: पीड़ित; जो दूसरों के दर्द को समझे।
- गर्मी-ए-बाज़ार: बाज़ार की चहल-पहल या रौनक।
- रू-शनास-ए-सवाबित-ओ-सय्यार: स्थिर तारों और ग्रहों का जानकार।
- रू-ए-नंग-ए-बे-हुनरी: कौशलहीनता का कलंक या शर्म।
- ख़्वार: अपमानित; तुच्छ।
- ख़ाकी: सांसारिक; धूल जैसा; मृत्युशील।
- ‘आर: लज्जा; अपमान।
- शाद: प्रसन्न; खुश।
- खानाज़ाद: घर में जन्मा; घरेलू नौकर।
- मुरीद: शिष्य; अनुयायी।
- मद्दाह: प्रशंसा करने वाला; प्रशंसक।
- ‘अरीज़ा: निवेदन; लिखित प्रार्थना।
- सद-शुक्र: सैकड़ों धन्यवाद; अत्यधिक कृतज्ञता।
- बारे: अंततः; आखिरकार।
- निस्बतें: रिश्ते; संबंध।
- मु’अय्यन: निर्धारित; तय; विशेष।
- मुद्दा-ए-ज़रूरी-ए-इज़हार: अभिव्यक्ति या घोषणा का आवश्यक विषय।
- पीर-ओ-मुर्शिद: आध्यात्मिक गुरु।
- ज़ौक़-ए-आराइश-ए-सरूद-ओ-सितार: संगीत और धुनों को सजाने का शौक।
- बाद-ए-ज़महरीर: सर्दियों की ठंडी हवा।
- आज़ार: कष्ट; पीड़ा; समस्या।
- दरकार: आवश्यक; ज़रूरी।
- पोशिश: आवरण; वस्त्र।
- नज़ार: कमजोर; दुर्बल; एक दृश्य।
- लैल-ओ-नहार: रात और दिन।
- याबिस: शुष्क; सूखा।
- वक़िना: हमें बचाओ; हमें सुरक्षित रखो।
- रब्बना: हमारे प्रभु।
- ‘अज़ाब: सज़ा; यातना।
- उलनार: अग्नि से संबंधित (नर्क की सज़ा)।
- मुकर्रर: बार-बार; फिर से; पुनः नियुक्त।
- हंजार: भीड़; जमावड़ा।
- मदार: आधार; केंद्र; कक्षा।
- नग़्ज़गो-ए-ख़ुश-गुफ़्तार: एक आलोचक जो मधुरता से बात करता है।
- रज़्म: युद्ध; लड़ाई।
- तेग़-ए-जौहर-दार: तेज़ और कुशल तलवार।
- अब्र-ए-गौहर-बार: ऐसा बादल जो मोती बरसाए (अनमोल या समृद्ध वर्षा का रूपक)।
- सरोकार: चिंता; संबंध; जुड़ाव।