उस आंगन का चांद

ibn e insha

शाम समय इक ऊंची सीढ़ियों वाले घर के आंगन में
चांद को उतरे देखा हमने चांद भी कैसा पूरा चांद!

इंशाजी इन चाहने वाली, देखने वाली आंखों ने
मुल्कों-मुल्कों, शहरों-शहरों , कैसा-कैसा देखा चांद?

हर इक चांद की अपनी धज थी, हर इक चांद का अपना रूप
लेकिन ऐसा रोशन-रोशन, हंसता बातें करता चाद?

दर्द की टीस तो उठती थी पर इतनी भी भरपूर कभी?
आज से पहले कब उतरा था , दिल में इतना गहरा चांद!

हमने तो किस्मत के दर से जब पाए अंधियारे पाए
यह भी चांद का सपना होगा, कैसा चांद , कहां का चांद?
(२)
इंशाजी दुनिया वालों में बे-साथी ,बे-दोस्त रहे
जैसे तारों के झुरमुट में तनहा चांद, अकेला चांद।

उनका दामन इस दौलत से खाली का खाली ही रहा
वर्ना थे दुनिया में कितने चांदी चांद और सोना चांद।

जग के चारों कूट में घूमा, सैलानी हैरान हुआ
इस बस्ती के इस कूचे के इस आंगन मे एसा चांद?

आंखों में भी चितवन में भी चांद ही चांद चमकते हैं
चांद ही टीका, चांद ही झूमर, चेहरा चांद और माथा चांद।

एक यह चांदनगर का बासी जिससे दूर रहा संजोग
वर्ना इस दुनिया में सबने चाहा चांद और पाया चांद।

(३)
अम्बर ने धरती पर फेंकी नूर की छींट उदास-उदास
आज की शब तो अंधी शब थी, आज किधर से निकला चांद!

इंशाजी यह और नगर है , इस बस्ती की रीत
यही सबकी अपनी-अपनी आंखें, सबका अपना-अपना चांद!

अपने सपने के मतले पर जो चमका वो चांद हुआ
जिसने मन के अंधियारे में आन किया उजियारा चांद।

चंचल मुसकाती-मुसकाती गोरी का मुखडा महताब
पतझड़ के पेड़ों मे अटका पीला सा इक पत्ता चांद।

दुख का दरिया , सुख का सागर उसके दम से देख लिए
हमको अपने साथ ही लेकर डूबा चांद और उभरा चांद।
(४)
झुकी-झुकी पलकों के नीचे नमनाकी का नाम न था
यह कांटा जो हमें चुभा है काश तुझे भी चुभता चांद।

रोशनियों की पीली किरचें , पूरब-पच्छिम फैल गईं
तूने किस शै के धोखे में पत्थर पर दे पटका चांद।

हमने तो दोनों को देखा दोनों ही बेदर्द कठोर
धरती वाला, अंबर वाला, पहला चांद और दूजा चांद।

चांद किसी का हो नहीं सकता , चांद किसी का होता है?
चांद की खातिर जिद नहीं करते ऐ मेरे अच्छे इंशा चांद।

-इब्ने इंशा