तज़्किरे
महक रही हैं ये सबायें, खिल उठे है गुंचे फिर,
मचल रहा है फिर चमन, मचल रही हैं इशरतें,
बहार बन के आयी हैं निशात ज़िन्दगी में फिर,
है लगता मैक़दे में फिर छिड़े हैं तेरे तज़्किरे ।
हैं चर्चे हर तरफ तेरे तबस्सुम के,
यहां सब ओर हैं तेरे ही दीवाने,
फ़लक से चाँद भी आया उतर कर है,
है सुनना चाहे शायद तेरे अफ़साने।
नुमायाँ अब तो कर किस्से मुहब्बत के,
सुना सच-झूंठ के ये फांसले सारे,
जो भी पेचीदगी रिश्तों की है कह दे,
बता दे इश्क़ के ये सिलसिले सारे।
उठी है आज फिर दिल-ए-शगुफ्ता में बहार सी,
बिखर रही है फिरसे तेरी खुश्बू इन फ़ज़ाओं में,
उठे हैं वलवले, उड़ी है दास्ताँ तेरी मेरी,
तू आ गयी या तज़्किरे छिड़े तेरे, सदाओं में।
-क़लमकश