गरल
नत- मस्तक हो वंदन करता हूँ उसको,
वह गरल कि जो हृदय में है फलता ।
कालजयी भी जिसे, शत-शत शीश नवाए,
वह, सदा जो अहंकार – मद में पलता ।
वह जो अपने उन्माद पर होके हर्षित,
समझे अपनी मूर्खता को ही प्रबलता ।
धन और बल की लालसा जिसको केवल,
वह, जानें क्या भला किस सुध में चलता।
किंतु उसे कौन भला सत्यपथ दिलाए,
सत्य ही कुबुध्दि बड़ी द्वैषी-निष्ठुर होती।
जो चाहती नाश बस अपना और दूजों का,
वह, अभिमान में है करुणा तक खोती।
जिसे नहीं ज्ञान स्वाभिमान का हो तनिक भी,
वह सदा ही जो कार्य करे नीच-कूर सा।
झूठे वैभव-गौरव पर फूले जो केवल,
वही मन में आगे चल गरल बनता।
-क़लमकश