ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है
पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,
कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है।
जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,
मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।
शम’-ए-हयात बुझ चुकी जलता रहा खुलूस,
जलते जहाँ में और यूँ बरकत अजीब है।
ये हिज्र, ये विसाल कोई खेल तो नहीं,
तुमको तो गोया इश्क़ से वहशत अजीब है।
यारों में हम क़लम रहे अनजान बे-खबर,
कहते फिरे जहाँ से की ग़फ़लत अजीब है।