बे-साख्ता

ऐसा कोई आलम, कोई ऐसा जहाँ होता कभी, 

ना बंदिशे, ना रंजिशें, ना कश्मकश, ना ही ख़लिश, 

मैं सोचता हूँ क्या कहीं ऐसा जहाँ भी होता है? 

होता नहीं जिसमें ज़लल, ना ही बुरी कोई रविश।

मैं सोचता हूँ, गर्दिश-ए-आयाम को हम भूलकर, 

फिर, इब्तिदा करते किसी ऐसे जहाँ में, इश्क की, 

जिसमें छलकती आरज़ू, जिसमें खटकता इज़्तिराब, 

जिसमें विसाल-ए-यार हो, जिसमें उरूज-ए-खल्क हो, 

जिसमें नहीं कुछ कश्मकश, जिसमें नहीं कुछ जुस्तुजू, 

बे-गैरती ना हो जहाँ, कुछ ‘आरज़ी ना हो जहाँ, 

ये मस’अले ना हो जहाँ, ये हसरतें ना हो जहाँ ।

मैं सोचता हूँ, हो कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता,

मैं सोचता हूँ, है कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता?