ग़ज़ल- जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़
जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़,
और सोचता हूँ मैं हूँ कहाँ जहाँ को छोड़।
जो गुजरने वाले थे वो गुज़र गए जानाँ,
वो तराना मिटटी में मिल गया जहाँ को छोड़।
है शिकस्त अपनी उलफ़त की मैं कहूँ तो क्या,
छोड़ आया था मैं अपना गुमाँ, जहाँ को छोड़।
अब ज़वाल का अपने मैं मु’आइना कर लूँ,
ग़म-गुसार, हमको क्या ना मिला जहाँ को छोड़।
जुस्तुजू तशफ्फी की जाविदां रहेगी अब,
करते ना तवक्को तो करते क्या, जहाँ को छोड़।
आलम-ए-तस्सवुर में जीते थे कभी हम भी,
ख्वाब ग़ुम गए अब जाने कहाँ जहाँ को छोड़।
बाद-ए-हिज्र जो मैं खुदको भी ना मिलूँ तो क्या,
कहना तुम जहाँ से वो मर गया जहाँ को छोड़।
ज़िंदगी बसर होती क्यों नहीं चरागों में,
तीरगी का मुझसे है रब्त क्या जहाँ को छोड़।
अब क़लम निकालो झूठे ख़याल क़ुर्बत के,
अब भुला दो खुदको, वो जा चुका जहाँ को छोड़।