दिल-ए-मुज़्तर, दिल-ए-नाशाद, ये नाराज़गी कैसी
दिल-ए-मुज़्तर, दिल-ए-नाशाद, ये नाराज़गी कैसी,
न रंज हो, ना सितम, ना ठोकरें तो ज़िंदगी कैसी।
हिकारत बे-वजह की तो नहीं है ज़िंदगी से हमें,
मगर जो ज़िंदगी मारे हमें, तो ज़िंदगी कैसी।
विसाल-ए-यार, हिज्र-ए-ग़म, करार-ए-दिल, मिला है सब,
समझ ना आए फिर भी दिल को है अफसुर्दगी कैसी।
कभी है मौत को तड़पे, कभी है ज़िंदगी कोसे,
न है मालूम की दिल को भला दीवानगी कैसी।
‘क़लम’ ना जी सके, ना मर सके, ना दिल हुआ है खुश,
नजाने ज़िंदगी से है भला बेगानगी कैसी।