ठाकुर साहब 

परवरिश क्या है? वह जो आप अपने बच्चों को सिखाते हैं? नहीं ! परवरिश इससे कहीं बढ़कर है | वह सब भी परवरिश ही है, जो आपके बच्चे देखते हैं | आपके आस-पास का माहौल भी परवरिश ही है | बच्चे जो देखते हैं, वही समझते हैं और जो समझते हैं उसी पर अमल करते हैं | अगर वह अच्छी चीज़ें देखेंगे और उन्हें अच्छी बातें बताई जाएँगी तो वो मनुष्य बनेंगे और उनकी प्रशंशा होगी | किन्तु यदि वह गलत संगत में पड़ते हैं, गलत चीज़ें देखते हैं और आप भी उन्हें गलत ही सिखा रहे हैं, तो शायद वही परिणाम हो जो ठाकुर साहब का हुआ | 

आज सुबह ठाकुर साहब मृत्यु को प्राप्त हो गए | साहब वैसे तो कहा करते थे की मैं मृत्यु से नहीं डरता पर आज जब मृत्यु को समक्ष देखा तो काँप उठे | जोर-जोर से रोने चिल्लाने लगे पर इतनी देर में कोई आता, सुनता क्या हुआ? तब तक तो प्राण-पखेरू उड़ चुके थे | मुँह में गंगाजल डाले तो अंदर भी न गया, अवश्य ही अपने कर्म जानते होंगे | 

ज्यूँ ही देह छूटी, गाँव भर में शोर मच गया “हवेली वाले ठाकुर साहब चल बसे” दूर-दूर तक बात फैली, नजाने कहाँ-कहाँ से लोग देखने आये | दोपहर तक पूरी हवेली खचाखच भर गयी | वह सब लोग आये जिन्हें ठाकुर साहब जीते जी तो द्वार पे कभी भटकने भी न देते | वह सब लोग जिन्हें ठाकुर साहब देखते ही नाक-मुँह सिकोड़ लेते थे | वह सब लोग  जिन्हें ठाकुर साहब ने लूटा था, जिनसे उनकी मजदूरी, उनके खेत-खलिहान, उनका हिस्सा, उनके कुँए, उनकी फसल,और उनका गाँव, सबकुछ छिन्न चुका था | अंदर तो सब ऐसे गए जैसे कितनी परवाह करते हों, पर बहार आये तो भाव ही बदले हुए थे | सब बड़े प्रसन्न थे, आखिर इन सबको अपना गाँव वापिस मिल चूका था | ठाकुर साहब की लूट-पात की नीतियां और गुंडई उन्ही के साथ समाप्त हो गयीं | यूँ तो दो बेटे थे, पर केवल नाम के | उन्हें न तो ठाकुर साहब से कोई मतलब था और न ही उनकी गुंडई से | दोनों न तो कभी मिलने आते, न कभी कोई खत, न ही कोई फ़ोन आता, और अगर कभी घर से कोई फ़ोन या खत आते तो उनके भी जवाब न देते | 

आज सुबह से फ़ोन पे फ़ोन किये जा रहे हैं, पर कोई जवाब नहीं | आखिर इतनी देर बाद एक फ़ोन उठाया गया, पर जो जवाब आया उसे सुनकर ठकुराइन जीते जी मर गयी | दोनों ने साफ़ कह दिया की- “हमारा कोई बाप नहीं, और न ही कोई माँ है, आपने शायद गलत जगह फ़ोन करा है” इतना कहकर फ़ोन काट दिया गया | अब तो दोनों के लिए माँ-बाप भी मर चुके थे | ठाकुर साहब की परवरिश कामयाब हुई | 

जो विष उन्होंने दोनों के मन में घोला था आखिर वह काम कर गया | बचपन से ही ठाकुर साहब ने दोनों को भेद-भाव, जात-बिरादरी, दूसरों से घृणा करना, अपने बल से उन्हें डराना, छुआछूत, और अपना स्वार्थ पूर्ण करना सिखाया | और आखिर यह ज्वाला इतनी प्रचंड हुई के आज परिणाम यह हुआ | 

कहते हैं की मृत्यु के उपरान्त ४ घंटों तक आँखें अपना कार्य करती रहती हैं | कितना उत्साह, कितना उल्लास होगा ठाकुर साहब की उन आँखों में, क्या अभिलाषा होगी अपने बेटों को अंतिम  समय में देखने की | कैसे ढून्ढ रही होंगी वो आँखें इस भीड़ में अपने बेटों को | 

आखिर अब लोग पास आये और परंपरा के अनुसार पैर छूने लगे, आंसू टपकाने लगे | आँखें अपना कार्य करने लगीं, पहचान रही थी धुंधले से इन चेहरों को | सबसे पहले वही दलित श्यामू आया, जिससे ठाकुर साहब कभी छूना भी पसंद न करते थे | अगर थोड़ी भी जान बाकी होती तो निःसंदेह ही ठाकुर साहब उसे धिक्कार देते किन्तु अब काम केवल तमाशा देखने का रह गया था | श्यामू के बाद देशराज आया जिसकी ठाकुर साहब ने ज़मीन छिनी थी | देशराज के बाद रघु और जनार्दन जिनकी नजाने कब-कबकी मज़दूरी रुकी हुई थी | फिर तो उनके बाद बहुत लोग आये, बजरंग जिनके खेत हड़प लिए गए थे, सूरे जिसको लातों से कुचल-कुचलकर मारा था क्यूंकि उसने उनके कुँए से पानी पी लिया था | और दर्जनों लोग आये जिनको देखकर ठाकुर साहब मरकर भी शर्म से मर गए | आखिर सब चले गए और चार घंटे भी पूरे हो गए, और ठाकुर साहब की अंतिम इच्छा, इच्छा ही रह गयी | 

उनका और उनकी परवरिश का क्रियाकर्म उनके भतीजे ने कर दिया |