जॉन एलिया साहब की नज़्मों/ग़ज़लों में कई बार एक ज़िक्र मिलता है फारिहा के नाम का। कहते हैं के फारिहा उनके तसव्वुर में जीने वाली उनकी वो माशूका थी जिसने उनकी शायरी में वो दर्द, वो कसक पैदा की। उसी फारिहा के नाम जॉन एलिया साहब की ये नज़्म भी है।
ब-नाम फारिहा -
सारी बातें भूल जाना फारिहा,
था वो सब कुछ एक फसाना फारिहा।
हाँ मुहब्बत एक धोखा ही तो थी,
अब कभी धोखा ना खाना फारिहा।
छेड़ दे गर कोई मेरा तज़्किरा,
सुन के तंज़न मुस्कुराना फारिहा।
मेरी जो नज्में तुम्हारे नाम हैं,
अब उन्हें मत गुनगुनाना फारिहा।
था फकत रूहों के नालों की शिकस्त,
वो तरन्नुम, वो तराना फारिहा।
बहस क्या करना भला हालात से,
हारना है, हार जाना फारिहा।
साज-ओ-बर्ग-ए-ऐश को मेरी तरह,
तुम नज़र से मत गिराना फारिहा।
है शऊर-ए-गम की एक कीमत मगर,
तुम ये कीमत मत चुकाना फारिहा।
जिंदगी है फितरतन कुछ बद-मिज़ाज,
जिंदगी के नाज उठाना फारिहा।
पेशकश में फूल कर लेना कुबूल,
अब सितारे मत मंगाना फारिहा।
चंद वीराने तसव्वुर में रहें,
जब नई दुनिया बसाना फारिहा।
जानिब-ए-इशरत गह-ए-शहर-ए-बहार,
हो सके तो मिल के जाना फारिहा।
सोचता हूं किस कदर तारीक है,
अब मेरा बाकी जमाना फारिहा।
सुन रहा हूं मंजिल-ए-ग़ुरबत से दूर,
बज रहा है शादियाना फारिहा।
मौज-ज़न पाता हूं मैं इक सैल-ए-रंग,
अज़-कफस-ता-आशियाना फारिहा।
हो मुबारक रस्म-ए-तक्रीब-ए-शबाब,
बर-मुराद-ए-खुसरवाना फारिहा।
सज के वो कैसा लगा होगा जो था,
एक ख्वाब-ए-शायराना फारिहा।
सोचता हूं मैं, के मुझको चाहिए,
ये ख़ुशी दिल से मनाना फारिहा।
क्या हुआ गर जिंदगी की राह में,
हम नहीं शाना-ब-शाना फारिहा।
वक्त शायद आप अपना जब्र है,
उस पे क्या तोहमत लगाना फारिहा।
जिंदगी एक नक्श-ए-बे-नक्काश है,
उस पे क्या उँगली उठाना फारिहा।
काश एक कानून होता जो नहीं,
जख्म अपने क्या दिखाना फारिहा।
काश कुछ इक्दार होते जो नहीं,
फिर भला दिल क्या जलाना फारिहा।
सिर्फ एक जलती हुई ज़ुलमत है नूर,
ताब-ओ-ताबिश पर ना जाना फारिहा।
ये जो सब कुछ है ये शायद कुछ नहीं,
रोग जी को क्या लगाना फारिहा।
सैल है, बस बे-करां लम्हों की सैल,
ग़र्क-ए-सैल-ए-बे-कराना फारिहा।
-जौन एलिया