हिंदी

जैसा कि आप सभी जानते हैं हिंदी दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी कितनी वैज्ञानिक भाषा है यह हमे स्कूल्स में भी सिखाना चाहिए। हमारी भाषा हमारी लिपि कितनी अद्भुत है ये हम आज जानेंगे। देवनागरी लिपि की शुरुआत संस्कृत के साथ हुई। वैदिक संस्कृत से हमे संस्कृत प्राप्त हुई जिसकी लिपि उस समय ब्रह्मी थी और ब्रह्मी से हमे कई प्राकृत भाषाएं प्राप्त हुई जैसे इलू, मगधी, साका, तेलुगु और कई सारी। इन भाषाओँ में आते-आते ब्रह्मी ने कई सारे अलग-अलग रूप ले लिए और उन्ही रूपों में से एक थी ‘नागरी’ मतलब वह भाषा जो नगर में बोली/पढ़ी जाती थी। और नागरी भाषाओँ से भी कई भाषाएँ निकलीं जिनमें से एक है हमारी ‘देवनागरी’| नागरी भाषाओं की खासियत यह है की ये भाषाएं बहुत रेसर्चेस करके बड़े वैज्ञानिक तरीके से एक क्रम के अनुसार व्यवस्थित करके लिखी गयी हैं। इसलिए ही हिंदी में शब्द को जैसे लिखा जाता है वैसे ही पढ़ा जाता है, और इसीलिए ही मात्राओं का इस्तेमाल किया जाता है। मात्राओं का इस्तेमाल और वर्णों की क्रम अनुसार व्यवस्था भाषा को easy to use बनाती हैं जिससे आप हिंदी के शब्दों को बड़ी आसानी से लिख/बोल सकते हैं। हिंदी में अगर आपको किसी भी शब्द को लिखने में कोई भी दिक्कत आती है तो सिंपल सा रूल है की आप उस शब्द को खुद उच्चारित करके देख लीजिये आपको पता लग जायेगा की शब्द को कैसे लिखा जायेगा। और यही कारण है की अंग्रेजी के शब्द हिंदी में आने के बाद बहुत जल्दी अपना लिए गए, अडॉप्ट कर लिए गए। क्यूंकि वर्णों और मात्राओं के इस व्यवस्थित ढंग ने हमे नए शब्द लिखने-बनाने की छूट दी है। इसी के साथ नागरी भाषा में वर्णों की जो व्यवस्था है वो इस तरह से है की जो वर्ण कंठ से उच्चारित होते हैं, क, ख, ग, घ, ङ वो एक साथ एक ही वर्ग में आते हैं। जो तालू से उच्चारित होते हैं च, छ, ज, झ, ञ वो एक अलग वर्ग में आते हैं। इसी तरह से ट-वर्ग पूरा मूर्धा से उच्चारित होता है, त-वर्ग पूरा दन्त यानी दांतों से उच्चारित होता है और प-वर्ग पूरा ओष्ठ यानी होठों से उच्चरित किया जाता है। ये तो हो गए साधारण व्यंजन इसी के साथ हमे पढ़ाये गए य, र, ल, व और श, ष, स, ह, जो की साधारण व्यंजनों से थोड़े अलग हैं। कैसे? जो हमारे य, र, ल, व, हैं, उनको हम कहते हैं अन्तस्थ व्यंजन मतलब वह व्यंजन जो आपके अंदर से बन के निकले हैं और आपको उच्चारित करने के लिए बस केवल अपनी जीभ को अलग-अलग स्थानों पर छूना है। और इन्हीं में ‘व’ अकेला ऐसा वर्ण है जो दन्तोष्ठ यानी दांत और होंठ दोनों के मेल से उच्चारित होता है, बाकि य जो है वो तालु से उच्चारित होता है, र मूर्धा से और ल दांतों से उच्चारित होता है। इसी प्रकार जो श, ष, स, ह हैं इन्हें कहते हैं हम उष्मीय व्यंजन, यानी वह व्यंजन जो ऊष्मा के साथ उच्चारित होते हैं, आप बोलके देखिये आपके मुँह से गर्म-गर्म हवा निकलेगी। इनका उच्चारण साधारण व्यंजनों की ही तरह होता है इसमें सबसे पहले ह आता है जो कंठ से उच्चारित होता है, तालू पे श, ष मूर्धा पर, और स दांतों पर। तो यह हो गया हमारा वर्ण उच्चारण का concept, की जो वर्ण एक ही वर्ग में हैं वो सभी जीभ की एक ही अवस्था में उच्चारित होते हैं।अब इसी तरह से हमारे स्वर भी होते हैं, साधारण स्वर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ ये सभी उसी क्रम से चलते हैं पर उच्चारण का तरीका थोड़ा बदल जाता है, क्यूंकि इनमें हमे अपनी जीभ को कहीं भी छूना नहीं होता। जैसे- अ, आ इन स्वरों में जीभ कंठ के पास तक तो गयी पर क की तरह उसको छुआ नहीं, बीच में कुछ खाली जगह रहने दी जिससे हवा पास हो सके। इसी तरह इ, ई में तालु को छुए बिना ही वर्ण उच्चारित हो गया। इसी तरह उ, ऊ में होंठ प की तरह आपस में नहीं मिले। इसी तरह जब ए, ऐ उच्चारित होता है तो वह उच्चारित तो दो जगह से होता है, कंठ और तालु, पर क्योंकि यह स्वर है तो जीभ कहीं भी छूती नहीं है और इसी लिए इसके उच्चारण को कंठतालु कहते हैं। इसी तरह ओ, औ के उच्चारण को कंठोष्ठ कहते हैं पर जीभ ना तो कंठ को छूती है और ना ही होंठ आपस में मिलते हैं। तो ये हो गए साधारण स्वर इन्ही के साथ आते हैं अयोगवाह जिनके अंतरगत आते हैं अनुस्वार (ं) और विसर्ग (ः) ये न तो स्वर होते हैं और न ही व्यंजन पर स्वरों के अंत में जरूर आते हैं। अं और अः यह दोनों ही अयोगवाह हैं। आयोगवाह के उच्चारण में भी जीभ की अलग-अलग अवस्थाओं का प्रयोग किया जाता है, इसमें अं नासिका यानी नाक और अः कंठ से उच्चारित होता है। और इनका भी आधुनिक भाषा में बहुत ज़्यादा प्रयोग नहीं किया गया है।इन्हीं के साथ हमने 3 स्वर और पढ़े हैं ऋ, ॠ और ऌ इनका उच्चारण हमे हर जगह अलग बताया गया है। ऋ और ॠ को कहीं ‘री’ तो कहीं ‘रु’ की तरह उच्चारित करना बताया जाता है, पर यह दोनों ही सही नहीं है। यह सुनने में ‘री’ या ‘रु’ जैसा लगता है पर यह उन दोनों से थोड़ा अलग है, इसका उच्चारण मूर्धा से जीभ को वहीं रखते हुए होता है जहाँ ट-वर्ग के वर्णों का उच्चारण होता है, तो फिर इनमें और ‘र’ में फर्क क्या है? फर्क इतना है की ये स्वरों की तरह जीभ और मूर्धा के बीच कुछ जगह रखते हुए उच्चारित होता है और क्यूंकि ये दोनों स्वर हैं तो इनके उच्चारण में समय व्यंजनों के मुकाबले कम लगता है, और साथ ही ‘र’ मैंने बताया था की अंतस्थ व्यंजन है, वह आपके अंदर ही बनके आया है, आपके अंदर से तो ‘आ’ का ही साउंड आता है पर जीभ से आप उसको ‘र’ में परिवर्तित कर देते हैं, पर ‘ऋ’ और ‘ॠ’ में आप अंदर से ही एक ‘र’ का साउंड लाते हैं। इसको पूरी तरह से समझने के लिए आपको व्याकरण पर ज़ोर देना होगा। इन्हीं स्वरों के साथ ये स्वर ‘ऌ’ आता है जिसका उच्चारण हमे ज्यादा-तर ‘ल+र’ की तरह से बताया गया है पर इसका सही उच्चारण कम समय लगाकर बोले गए ‘ल’ की तरह होता है और इस स्वर का काफी इस्तमाल संस्कृत में होता है, हिंदी में इन स्वरों को उतना ज्यादा नहीं लिया गया। तो ये बात हो गयी हमारे वर्णों की और उनके उच्चारण की, अब हम बात करते है की संयुक्त अक्षर कैसे बने ? तो आपने देखा होगा की कई बार एक जैसे उच्चारण वाले शब्दों को अलग-अलग प्रकार से लिखते हैं पर वो सभी शब्द असल में केवल सुनने में ऐसे लगते हैं और उनका सही उच्चारण यह है भी नहीं, पर क्यूंकि भाषा समय के साथ बदलती रहती है हमे उन शब्दों का सही उच्चारण नहीं पता और हम वही बोलते हैं जो हमने सुना है। जैसे – कभी सोचा है की ‘क्ष’ को हम इसी तरह क्यों लिखते हैं ? हम इसको ‘क्श’ की तरह भी तो लिख सकते हैं। बिलकुल लिख सकते हैं पर उन जगहों पे जहाँ इसको इस तरह से बोला जाना है। आपने देखा होगा की कहीं-कहीं इसका उच्चारण ‘श’ की तरह भी होता है फिर वहां ये ‘क्श’ कैसे चलेगा? पर वहां तो इसकी ज़रुरत ही नहीं ऐसी जगहों पर तो हम ‘श’ का ही इस्तमाल कर सकते हैं। तो ऐसा नहीं है, असल में संयुक्त अक्षर दो पूर्ण वर्णों को मिला कर तो बनाये गए हैं पर इनका उच्चारण वैसे नहीं होगा जैसे स्वयं शब्द में ‘स्व’ का हो रहा है, स्वयं में दन्त से आधा ‘स’ उच्चारित होने के बाद जीभ तुरंत दन्तोष्ठ की अवस्था में आ जाती है पर अगर ‘क्ष’ को देखें तो जीभ को अवस्था बदलने में कुछ समय लगता है जैसे अगर हम अक्षर शब्द में देखें तो हम पाते हैं की पूरे ‘क्ष’ का उच्चारण कंठ से ही हो जाता है जबकि अगर हम इसको अक्शर की तरह लिखे तो शब्द टूटता है और अक के बाद जीभ को एक छोटा सा विराम मिल जाता है जिससे ‘अक्शर’ और ‘अक्षर’ सुनने में अलग-अलग लगते हैं। तो अगर ध्यान से देखा जाए तो सभी संयुक्त अक्षर इसी प्रकार से बनाये गए हैं की बीच में जीभ को विराम न देकर पूरा वर्ण एक साथ उच्चारित हो जाये और शब्दों के उच्चारण में कोई बाधा न आये। इसीलिए ‘ज्ञ’, ‘क्ष’, ‘श्र’, और ‘त्र’ यह सभी संयुक्त अक्षर बनाये गए जिससे वर्णों का उच्चारण और आसान बनाया जा सके। इसी के साथ हमने बहुत सी जगहों पर ये देखा है की कई शब्द आधे वर्ण से शुरू होते हैं जैसे- ‘स्वयं’, ‘त्वचा’, ‘स्थान’, पर हमने कभी कोई भी शब्द ‘क्ख’, ‘च्च’, ‘च्छ’, या ‘त्न’ से शुरू होते हुए नहीं देखे, क्यों? इसका कारण ये है की एक ही वर्ग के दो वर्ण इस तरह से मिलकर शब्द की शुरुआत में नहीं बोले जा सकते हैं, ये कोई नियम नहीं है पर ये संभव नहीं क्यूंकि अगर हम एक ही वर्ग के दो वर्णों को इस प्रकार से बोलने की कोशिश करेंगे तो जीभ जो ‘स्वयं’, ‘त्वचा’, या ‘स्थान’ जैसी जगहों पर अवस्था तुरंत बदल लेती है यहाँ पर ऐसा नहीं कर पायेगी और दोनों वर्णों के बीच एक लम्बा विराम आ जायेगा जिससे दोनों ही वर्ण पूरे-पूरे सुनाई देंगे। पर स्थान में भी तो दोनों वर्ण एक ही वर्ग के हैं न ? तो ये हमने पहले ही देखा था की ‘स’ पूर्ण व्यंजन न होकर उष्म व्यंजन है इसलिए यहाँ पर यह संभव है, और केवल यहीं नहीं ऐसे कुछ और शब्दों में भी संभव है पर वह बहुत ही सीमित हैं। तो, यहि सब बातें थी हमारी ओरिजिनल भाषा से जुडी जो मैं आपको बताना चाहता था। अब एक छोटी सी चीज़ और बताता हूँ जो की हमारी पुराणी भाषा/लिपि में नहीं थी पर आजकल उसका इस्तमाल किया जाता है। आपने बहुत से शब्द देखे होंगे जिनमें (.) यह चिह्न वर्णों के नीचे लगा रहता है जैसे ‘ज़’, ‘फ़’, ‘ग़’, इस चिह्न को नुक्ता कहते हैं और यह हिंदी लिपि में आया उर्दू के बाद। पर क्यों? अगर हिंदी खुदमें इतनी वैज्ञानिक और एक पूर्ण भाषा है तो वर्णों के उच्चारण को बदलने के लिए एक छोटा सा बिंदु पहले से क्यों नहीं था? असल में यह बिंदु हिंदी में लाया ही शब्दों के उच्चारण को बदलने के लिए था। क्यूंकि हिंदी के किसी भी शब्द में ‘ज’ को ‘ज़’ या ‘फ’ को ‘फ़’ नहीं लिखा या पढ़ा जाता जबकि उर्दू में ऐसा होता है और उर्दू में भी यह बिंदु इसी काम आता है। तो इसलिए उर्दू के शब्द जैसे ‘फ़क़ीर’, ‘नज़र’, ‘मिज़ाज’ को ही हिंदी में लिखने के लिए ये आया। तो इसी लिए ही कहते हैं की भाषा समय के साथ रूप बदलती रहती है। Other Topicsदेवनागरी में कोई भी साइलेंट वर्ड, लोअर केस और अप्पर केस का कोई भी कांसेप्ट नहीं है जो भाषा को और भी easy to use बनता है। पंचमाक्षर- वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग के अंतिम वर्ण के समूह को पंचमाक्षर (ङ,ञ,ण,न,म) कहते हैं। हमने कई जगहों पर यह देखा है की अनुस्वार की जगह पंचमाक्षर और पंचमाक्षर की जगह अनुस्वार का प्रयोग किया जाता है जैसे- गङ्गा को गंगा, चञ्चल को चंचल, पञ्चम को पंचम आदि लिखा जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पंचमाक्षर का यह गुण होता है की यदि उसके बाद आने वाला वर्ण उसी वर्ग में से है जिसमें से पंचमाक्षर खुद है तो वह अनुस्वार में बदला जा सकता है। और यदि दोनों अलग-अलग वर्ग से हैं या पंचमाक्षर ही दोबारा आ जाए तो पंचमाक्षर अपने मूल रूप में ही रहता है। जैसे- अन्य, कन्हैया, चिन्मय, अन्न आदि।जिस प्रकार नुक़्ता उर्दू के शब्दों को हिंदी में लिखने के लिए आया इसी प्रकार अंग्रेजी के मूल शब्दों को हिंदी में लिखने के लिए एक मात्रा बनाई गयी (ॉ) चंद्र चिह्न। हमने बहुत से शब्द अंग्रेजी के देखे हैं जैसे- हॉट, ऑनेस्ट, नॉट आदि, जिनमें ये चंद्र चिह्न हमने देखा है और ये अंग्रेजी के उन शब्दों के लिए है जो हिंदी में आने के बाद परवर्तित नहीं हुए। परिवर्तित मतलब जैसे – पॉलिस का पुलिस हो गया।