बे-साख्ता

ऐसा कोई आलम, कोई ऐसा जहाँ होता कभी,
ना बंदिशे, ना रंजिशें, ना कश्मकश, ना ही ख़लिश,
मैं सोचता हूँ क्या कहीं ऐसा जहाँ भी होता है?
होता नहीं जिसमें ज़लल, ना ही बुरी कोई रविश।

मैं सोचता हूँ, गर्दिश-ए-आयाम को हम भूलकर,
फिर, इब्तिदा करते किसी ऐसे जहाँ में, इश्क की,
जिसमें छलकती आरज़ू, जिसमें खटकता इज़्तिराब,
जिसमें विसाल-ए-यार हो, जिसमें उरूज-ए-खल्क हो,
जिसमें नहीं कुछ कश्मकश, जिसमें नहीं कुछ जुस्तुजू,
बे-गैरती ना हो जहाँ, कुछ ‘आरज़ी ना हो जहाँ,
ये मस’अले ना हो जहाँ, ये हसरतें ना हो जहाँ ।

मैं सोचता हूँ, हो कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता,
मैं सोचता हूँ, है कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता?

ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,

कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है। 

जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,

मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।

ग़ज़ल- जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़

जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़,
और सोचता हूँ मैं हूँ कहाँ जहाँ को छोड़।

जो गुजरने वाले थे वो गुज़र गए जानाँ,
वो तराना मिटटी में मिल गया जहाँ को छोड़।

है शिकस्त अपनी उलफ़त की मैं कहूँ तो क्या,
छोड़ आया था मैं अपना गुमाँ, जहाँ को छोड़।

अब ज़वाल का अपने मैं मु’आइना कर लूँ,
ग़म-गुसार, हमको क्या ना मिला जहाँ को छोड़।