अपूर्ण

मैं इसी विचार में निमग्न सोचती रही, कि,

बोल दूँ दबी हुई, पुकार लूँ तुम्हें अभी।

किंतु ये न हो सका, मिला मुझे यही वियोग,

और यूँ दबे रहे अपूर्ण स्वप्न वो सभी।।

निर्झर

शत-शत बाधा-बंधन तोड़,
निकल चला मैं पत्थर फोड़।
प्लावित कर पृथ्वी के पर्त्त,
समतल कर बहु गह्वर गर्त्त,
दिखला कर आवर्त्त-विवर्त्त,
आता हूँ आलोड़ विलोड़,
निकल चला मैं पत्थर फोड़।