
थकन
मुझको याद है, ये सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू,
दरख़्तों की ये छाँव, ये बारिश के पछाटे,
ये झूमती गाती फ़सलें, ये टूटे से वीराने,
और छोटी सी ये जन्नत,
जिसमें रहती थी वो बुढ़िया,
कि, जिसके हाथों को छू लूँ,
तो आता था वो हौसला मुझे,
की इक रोज़ छू लूँगा ये दुनिया।
पर आज जो लौटा इस शहर,
तो देखता हूँ न-जाने क्यूँ,
ये सिर है झुका हुआ,
ये कंधे थक चुके हैं।
-क़लमकश