परिंदे

दिल-ए-मुज़्तर, दिल-ए-नाशाद, ये नाराज़गी कैसी, न रंज हो, ना सितम, ना ठोकरें तो ज़िंदगी कैसी।

परिंदे उड़ा नहीं करते आज-कल,

यूँ ही घोंसलों में मुन्तज़िर बैठे रहते हैं,

तकते रहते हैं इक राह,

कि कब,कोई, आये जिसके सहारे से ज़िन्दगी शुरू हो,

कोई आये और उड़ना सिखाये,मुँह में निवाला दे,

ज़रा सा कुछ हो तो अमां में ले-ले,

कुछ देर तलाक मैंने,

एक टक यूँ ही देखा उनको,

और फिर अचानक बिखरके रोया।