राम चलो वनवास चलें
राम चलो वनवास चलें,
लोग तुम्हें अब ना भजते।
रीत यहाँ कि नहीं अब वो,
छोड़ गये तुम थे तब जो।।
राम चलो वनवास चलें,
लोग तुम्हें अब ना भजते।
रीत यहाँ कि नहीं अब वो,
छोड़ गये तुम थे तब जो।।
एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।
मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।
दोहे हिंदी काव्य में सबसे प्रचलित छंदों में से एक है। हालांकि नए कवियों के आने के बाद दोहों का उतना प्रचलन नहीं रहा।
सुबह से यह कुत्ता इसी गली के चक्कर काट रहा है। कोई मूर्ख गाड़ी चढ़ा गया है, तबसे बेचारा यूँ ही रोता हुआ घूम रहा है।
जॉन एलिया साहब की नज़्मों/ग़ज़लों में कई बार एक ज़िक्र मिलता है फारिहा के नाम का। कहते हैं के फारिहा उनके तसव्वुर में जीने वाली उनकी वो माशूका थी जिसने उनकी शायरी में वो दर्द, वो कसक पैदा की। उसी फारिहा के नाम जॉन एलिया साहब की ये नज़्म भी है।
ब-नाम फारिहा –
है हर इक ख्वाब वाबस्ता उसी से,
मुहब्बत है शुरू होती यहीं से।
तबीयत आज कुछ अच्छी नहीं है,
है शायद हाल ये तेरी कमी से।
रंज-ओ-सितम से दूर फिरसे इश्क की हो इब्तिदा,
कोई ख़लिश ना हो जहाँ, कोई ख़लल ना हो जहाँ,
सब रंजिशों से दूर हों, सब बंदिशों से दूर हों,
कोई कशिश ना हो जहाँ, कोई जदल ना हो जहाँ।
तज़्किरे- महक रही हैं ये सबायें, खिल उठे है गुंचे फिर,मचल रहा है फिर चमन, मचल रही हैं इशरतें,बहार बन के आयी हैं निशात ज़िन्दगी में फिर…
उस-आंगन-का-चांद (us aangan ka chaand) is a very beautiful nazm composed by the very famous Pakistani poet ibn-e-insha.
बला-ए-अज़ीम दो आँखें,उन आँखों में खुमारी,उस खुमारी में इश्क़,उस इश्क़ में दर्द,उस दर्द में यादें,उन यादों में मंज़र…