सारी बातें भूल जाना फारिहा – जॉन एलिया

जॉन एलिया साहब की नज़्मों/ग़ज़लों में कई बार एक ज़िक्र मिलता है फारिहा के नाम का। कहते हैं के फारिहा उनके तसव्वुर में जीने वाली उनकी वो माशूका थी जिसने उनकी शायरी में वो दर्द, वो कसक पैदा की। उसी फारिहा के नाम जॉन एलिया साहब की ये नज़्म भी है।
ब-नाम फारिहा –

रंज-ओ-सितम से दूर

रंज-ओ-सितम से दूर फिरसे इश्क की हो इब्तिदा,
कोई ख़लिश ना हो जहाँ, कोई ख़लल ना हो जहाँ,
सब रंजिशों से दूर हों, सब बंदिशों से दूर हों,
कोई कशिश ना हो जहाँ, कोई जदल ना हो जहाँ।

तज़्किरे

तज़्किरे- महक रही हैं ये सबायें, खिल उठे है गुंचे फिर,मचल रहा है फिर चमन, मचल रही हैं इशरतें,बहार बन के आयी हैं निशात ज़िन्दगी में फिर…

बला

बला-ए-अज़ीम दो आँखें,उन आँखों में खुमारी,उस खुमारी में इश्क़,उस इश्क़ में दर्द,उस दर्द में यादें,उन यादों में मंज़र…