फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: कोई आशिक़ किसी महबूबा से

याद की राहगुज़र जिस पे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते
ख़त्म हो जाए जो दो चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का
जिस से आगे न कोई मैं हूँ न कोई तुम हो
साँस थामे हैं निगाहें कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ गुज़र जाओ या मुड़ कर देखो
गरचे वाक़िफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोका है
गर कहीं तुम से हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुक़ाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और जुम्बिश-ए-बाज़ू का सफ़र

दूसरी बात भी झूटी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं
जिस के पर्दे में मिरा माह-ए-रवाँ डूब सके
तुम से चलती रहे ये राह, यूँही अच्छा है
तुम ने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं

परिंदे

परिंदे उड़ा नहीं करते आज-कल, यूँ ही घोंसलों में मुन्तज़िर बैठे रहते हैं, तकते रहते हैं इक राह, कि कब, कोई, आये जिसके सहारे से ज़िन्दगी शुरू हो..

तज़्किरे

तज़्किरे- महक रही हैं ये सबायें, खिल उठे है गुंचे फिर,मचल रहा है फिर चमन, मचल रही हैं इशरतें,बहार बन के आयी हैं निशात ज़िन्दगी में फिर…

शहर

“ये शहर की चकाचौंध आँखों में बड़ी खलती है,ये शहर शायद खा रहा है मुझे।” ‘शहर’ is a very beautiful Nazm written by Kalamkash.