ग़ज़ल- एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो
एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।
मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।
एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।
मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।
जॉन एलिया साहब की नज़्मों/ग़ज़लों में कई बार एक ज़िक्र मिलता है फारिहा के नाम का। कहते हैं के फारिहा उनके तसव्वुर में जीने वाली उनकी वो माशूका थी जिसने उनकी शायरी में वो दर्द, वो कसक पैदा की। उसी फारिहा के नाम जॉन एलिया साहब की ये नज़्म भी है।
ब-नाम फारिहा –
Sayyed Hussain Jaun Asghar Naqvi was a Pakistani poet and philosopher known for his unique style of writing and reciting.