हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है

हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है,
आँखें नम कैसे हैं, सासें क्यों जलती हैं।

करता हूँ मैं तलाश ज़र्रा-ज़र्रा अपना,
रोज़ नई कोई ख़ामी मुझमें निकलती है।

कहता है फाज़िल मय को चीज़ बुरी या रब,
जाने कैसे शामें उसकी गुज़रा करती हैं।

क़ायल नहीं ख़ुदा के फैसलों का मैं भी पर,
हूँ जानता मैं भी दुनिया कैसे चलती है।

ना छेड़ ‘क़लम’ मेरी साज़-ए-हस्ती को यूँ,
जाँ फिर कहाँ संभले जो एक बार बिखरती है।

ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग

ये क़िता “ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग” आपने गुलज़ार साहब द्वारा रचित TV show या उनकी किताब “मिर्ज़ा ग़ालिब” में ज़रूर पढ़ा या सुना होगा जो ग़ालिब ने आखिरी मुग़ल बादशाह को अपने हालात का बखान करते हुए लिखा था। वैसे तो यह क़िता आप रेख़्ता पर उर्दू में पढ़ सकते हैं पर क्योंकि बहुत से लोगों को उर्दू पढ़नी नहीं आती है, इसलिए मैनें इसका देवनागरी में अनुवाद कर दिया। साथ ही कुछ कठिन शब्द हैं जिनका मतलब मैनें नीचे दे दिया है।

ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,

कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है। 

जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,

मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।

परिंदे

परिंदे उड़ा नहीं करते आज-कल, यूँ ही घोंसलों में मुन्तज़िर बैठे रहते हैं, तकते रहते हैं इक राह, कि कब, कोई, आये जिसके सहारे से ज़िन्दगी शुरू हो..

हमें आप फिरसे बुला लीजे जानाँ

हमें आप फिरसे बुला लीजे जानाँ,
करे फैसले क्या, बता दीजे जानाँ।
है तारीक अब भी भला क्यूँ ये कमरा,
ज़रा इसमें दीये जला दीजे जानाँ।
फिर एक आम सी बात पर होगा झगड़ा,
सो, सारे तअल्लुक भुला दीजे जानाँ।
मुझे है ग़म-ए-ज़ीस्त से खौफ़ सा कुछ,
मुझे आप इससे बचा लीजे जानाँ।
तरावत जो दीदों में है, आप उससे,
ये तरतीब फिरसे सजा लीजे जानाँ।
ये जो रम्ज़ है आपकी नज़रों में ना,
आप इसे सबसे छुपा लीजे जानाँ।
गुज़रने लगा हूँ मैं अपनी हदों से,
ज़रा मुझपे तोहमत लगा दीजे जानाँ।
-क़लमकश

ग़ज़ल- एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो

एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।

मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।

सारी बातें भूल जाना फारिहा – जॉन एलिया

जॉन एलिया साहब की नज़्मों/ग़ज़लों में कई बार एक ज़िक्र मिलता है फारिहा के नाम का। कहते हैं के फारिहा उनके तसव्वुर में जीने वाली उनकी वो माशूका थी जिसने उनकी शायरी में वो दर्द, वो कसक पैदा की। उसी फारिहा के नाम जॉन एलिया साहब की ये नज़्म भी है।
ब-नाम फारिहा –

रंज-ओ-सितम से दूर

रंज-ओ-सितम से दूर फिरसे इश्क की हो इब्तिदा,
कोई ख़लिश ना हो जहाँ, कोई ख़लल ना हो जहाँ,
सब रंजिशों से दूर हों, सब बंदिशों से दूर हों,
कोई कशिश ना हो जहाँ, कोई जदल ना हो जहाँ।

तज़्किरे

तज़्किरे- महक रही हैं ये सबायें, खिल उठे है गुंचे फिर,मचल रहा है फिर चमन, मचल रही हैं इशरतें,बहार बन के आयी हैं निशात ज़िन्दगी में फिर…