देखूँ किसी भी ओर उसी ओर चलूँ मैं

देखूँ किसी भी ओर उसी ओर चलूँ मैं,

रस्ते सभी हैं एक से तो क्या ही करूँ मैं।

मुझको मिला है एक सफ़र में नया रहबर,

दिखला रहा रस्ता कि जिसे पा न सकूँ मैं।

पिन्दार मिरे और बड़ा, और बड़ा हो,

तुझको ही मिले जो मिले, तुझसे ही मिलूँ मैं।

थकन

मुझको याद है, ये सौंधी-सौंधी ख़ुश्बू,

दरख़्तों की ये छाँव, ये बारिश के पछाटे,

ये झूमती गाती फ़सलें, ये टूटे से वीराने,

और छोटी सी ये जन्नत,

जिसमें रहती थी वो बुढ़िया,

कि, जिसके हाथों को छू लूँ,

तो आता था वो हौसला मुझे,

की इक रोज़ छू लूँगा ये दुनिया।

पर आज जो लौटा इस शहर,

तो देखता हूँ न-जाने क्यूँ,

ये सिर है झुका हुआ,

ये कंधे थक चुके हैं।

मिरे दिल की राख कुरेद मत

मिरे दिल की राख कुरेद मत इसे मुस्कुरा के हवा न दे
ये चराग़ फिर भी चराग़ है कहीं तेरा हाथ जला न दे

नए दौर के नए ख़्वाब हैं नए मौसमों के गुलाब हैं
ये मोहब्बतों के चराग़ हैं इन्हें नफ़रतों की हवा न दे

हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है

हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है,
आँखें नम कैसे हैं, सासें क्यों जलती हैं।

करता हूँ मैं तलाश ज़र्रा-ज़र्रा अपना,
रोज़ नई कोई ख़ामी मुझमें निकलती है।

कहता है फाज़िल मय को चीज़ बुरी या रब,
जाने कैसे शामें उसकी गुज़रा करती हैं।

क़ायल नहीं ख़ुदा के फैसलों का मैं भी पर,
हूँ जानता मैं भी दुनिया कैसे चलती है।

ना छेड़ ‘क़लम’ मेरी साज़-ए-हस्ती को यूँ,
जाँ फिर कहाँ संभले जो एक बार बिखरती है।

ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग

ये क़िता “ऐ शहनशाह-ए-आस्माँ औरंग” आपने गुलज़ार साहब द्वारा रचित TV show या उनकी किताब “मिर्ज़ा ग़ालिब” में ज़रूर पढ़ा या सुना होगा जो ग़ालिब ने आखिरी मुग़ल बादशाह को अपने हालात का बखान करते हुए लिखा था। वैसे तो यह क़िता आप रेख़्ता पर उर्दू में पढ़ सकते हैं पर क्योंकि बहुत से लोगों को उर्दू पढ़नी नहीं आती है, इसलिए मैनें इसका देवनागरी में अनुवाद कर दिया। साथ ही कुछ कठिन शब्द हैं जिनका मतलब मैनें नीचे दे दिया है।

बे-साख्ता

ऐसा कोई आलम, कोई ऐसा जहाँ होता कभी,
ना बंदिशे, ना रंजिशें, ना कश्मकश, ना ही ख़लिश,
मैं सोचता हूँ क्या कहीं ऐसा जहाँ भी होता है?
होता नहीं जिसमें ज़लल, ना ही बुरी कोई रविश।

मैं सोचता हूँ, गर्दिश-ए-आयाम को हम भूलकर,
फिर, इब्तिदा करते किसी ऐसे जहाँ में, इश्क की,
जिसमें छलकती आरज़ू, जिसमें खटकता इज़्तिराब,
जिसमें विसाल-ए-यार हो, जिसमें उरूज-ए-खल्क हो,
जिसमें नहीं कुछ कश्मकश, जिसमें नहीं कुछ जुस्तुजू,
बे-गैरती ना हो जहाँ, कुछ ‘आरज़ी ना हो जहाँ,
ये मस’अले ना हो जहाँ, ये हसरतें ना हो जहाँ ।

मैं सोचता हूँ, हो कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता,
मैं सोचता हूँ, है कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता?

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,

कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है। 

जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,

मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।