बचपन में ना,
सब अच्छा लगता था,
वो खेलना कूदना, वो भागना दौड़ना,
वो घूमना फिरना, वो बेहिसाब बोलना,
सबके साथ बैठना, नए दोस्त बनाना|
बचपन में तो बता दिया करते थे माँ को सब कुछ,
हाँ! पापा से थोड़ा डरते थे, पर प्यार बोहोत करते थे
और करते हैं|
तब न वक़्त बोहोत हुआ करता था हमारे पास,
पर सब खेलने में उदा दिया करते थे,
कभी देखा ही नहीं, के माँ और पापा किस तरह
कंधो पर तन्हाईयाँ लिए फिरते थे|
कभी देखा ही नहीं की कैसे बाल सफ़ेद होते हैं,
न कभी कैना इतनी गौर से निहारा|
अब जब देखता हूँ न, खुदको आईने में,
सब दीखता है-
सफ़ेद बल भी दीखते हैं, तन्हाइयों से लाडे कंधे भी दीखते हैं,
और कुछ धुंधला सा दीखता है पर, वो छोटा सा घर भी दीखता है|
वो वक़्त जो उदय था, अब सोचता हूँ, काश!
बचाया होता, या घर को दिया होता|
कोई याद होती माँ के साथ या कोई तस्वीर हौ टी पापा के साथ,
अब कौन ही है, जिससे बांट सकूं सबकुछ जैसे माँ से बांटा करता था|
अब अच्छा भी तो नहीं लगता कुछ भी,
खेलने कूदने, भागने दौड़ने की उम्र ही नहीं रही,
बोलना भी अब न के बराबर होता है,
और! लिखना ज़ादा पसंद है अब,
लिखता हूँ न, वो चेहरा लिखता हूँ जो,
मुखौटो में से नज़र आते है,
शायद इसलिए कोई दोस्त नहीं बनता, कोई पास नहीं बैठता|
अब बस एक ही चीज़ अच्छी लगती है,
यूँ हमेशा की तरह, इस कमरे के इस कोने में तनहा सा बैठे रहना|
एक किताब रहती है हाथों में, और एक कलम और कागज़ों का बंडल,
यूँ ही बगल में पड़ा रहता है|
बचपन ख़त्म हो चूका है शायद|
-क़लमकश