अंधेरा

अंधेरा is a beautiful Nazm composed by Kalamkash, which tells us about the role of society in an incomplete love story.

वो आग़ाज़-ए-मुहब्बत की बात थी,

जब तुम थे मैं थी और खुशियां भी साथ थीं,

रंग ही रंग थे हर महफ़िल में,

हर पहलू खुशबुओं से भरा था,

उम्र थोड़ी कच्ची थी अभी,

दिल थोड़ा हरा था,

मैं आता था छुपते हुए इन अँधेरी रातों में,

तुमसे मिलने, तुम्हे देखने और खोने तुम्हारी बातों में,

तुम जब बाहें बिखेरती थीं अपनी,

लगता था जैसे हर महफ़िल महकती थी,

लटें जब संवारती थीं उँगलियों से कान के पीछे,

गोया शाम के धुएँ में धड़कने दहकती थीं,

तुम नज़रें मिलाती थीं  इश्क़ जताने के लिए,

मैं नज़रें चुराता यूँ ही तुम्हें सताने के लिए,

तुम हाथ थामकर मेरा, कुछ लफ्ज़ लाती थी होंठो पर,

और शर्मा जातीं जब मैं कुछ कहने लगता,

मेरे होंठों पर रखकर उँगलियाँ अपनी मुझे खामोश करतीं थीं,

तुम शायद थोड़ा ज्यादा ही शर्मा जातीं थीं,

क्या हसीं शामें थीं, क्या खूबसूरत लम्हे,

कितना दिलक़श शहर था, कितने दिलनशीन नग्मे,

कैसा वो वक़्त था, जब तुम्हारा सर मेरे सीने पर होता था,

तुम मेरी आँखों में गुम रहतीं, मैं तुम्हारी आँखों में खोता था | 

पर ख्वाब-ओ-ख़याल को बिखरने में वक़्त क्या लगता है?

वक़्त को यूँ बदलने में वक़्त क्या लगता है?

एक अंगड़ाई में जो करार खो बैठा,

उस बेक़रार दिल के उजड़ने में वक़्त क्या लगता है?

आखिर हुआ वही जिसका खौफ हम खाए बैठे थे,

मुक्क़द्दर के हर मोड़ पर ज़माने के काले साये बैठे थे,

हाँ, तसव्वुर में भी जो न थे, वो ज़ख्म वो लम्हे जीने पड़े,

तुम्हारी याद में खोये रहे, ग़म के आंसू पीने पड़े,

तसव्वुर के पार गया जो वो दर्द कैसे बयाँ करूँ?

हश्र हुआ जो चाहत का, वो हश्र कैसे बयाँ करूँ?

हाँ, ज़ालिम ज़माने नें, दो धड़कते दिल सुलगा दिए,

आँखों में भरे ख्वाब थे, वो सारे ख्वाब जला दिए,

शहर जलाया, घर जलाया, सारा जहाँ जला दिया,

इंसानो ने हाथों अपने हर इन्साँ जला दिया,

मैं क्या बयां करूँ? मुहब्बत का क्या अंजाम हुआ,

मैं क्या बयां करूँ? इश्रत का भी दाम हुआ,

मैं क्या बयां करूँ? क्या-क्या जलकर ख़ाक हुआ,

मैं क्या बयां करूँ? क़तरा-क़तरा राख हुआ,

नजाने इतनी नफरत पाले ज़माना कैसे रहता है,

नजाने इतनी वहशत पाले ज़माना कैसे रहता है,

जात-जात बस जात ही चाहता वाक़ई ज़माना पागल है,

बात-बात पर लड़ता-मरता वाक़ई ज़माना पागल है |

मुहब्बत करने का ये अंजाम, तो हम तो सारे जल जाएंगे,

बस नफ़रतें पलीं गर सीनों में, तो हम तो सारे मर जाएंगे,

गर यही रहा हाल ज़माने का तो,

बस दीवारें ही बचेंगी फिर,

गर सहर यूँ ही जलीं तो,

बस शबे ही बचेंगी फिर,

फिर काली शबे अंधेरा बिखेरेंगी पैर पसारेंगी, 

तन्हाईयाँ उमड़ेंगी तल्खियाँ सिमटेंगीं,

हर किसी की ज़िन्दगी में, अँधेरा फैलेगा, वहशत फैलेगी,

सबके अक्स मिट जायेंगे, बस नफ़रतें रहेंगी,

फिर न कोई ज़माना होगा, न कोई आशिक़ ही,

बेशक मुहब्बत जल जाएगी, हर कोई जलेगा बेशक ही |