हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है

हर दम के साथ लबों से इक आह निकलती है,
आँखें नम कैसे हैं, सासें क्यों जलती हैं।

करता हूँ मैं तलाश ज़र्रा-ज़र्रा अपना,
रोज़ नई कोई ख़ामी मुझमें निकलती है।

कहता है फाज़िल मय को चीज़ बुरी या रब,
जाने कैसे शामें उसकी गुज़रा करती हैं।

क़ायल नहीं ख़ुदा के फैसलों का मैं भी पर,
हूँ जानता मैं भी दुनिया कैसे चलती है।

ना छेड़ ‘क़लम’ मेरी साज़-ए-हस्ती को यूँ,
जाँ फिर कहाँ संभले जो एक बार बिखरती है।

बे-साख्ता

ऐसा कोई आलम, कोई ऐसा जहाँ होता कभी,
ना बंदिशे, ना रंजिशें, ना कश्मकश, ना ही ख़लिश,
मैं सोचता हूँ क्या कहीं ऐसा जहाँ भी होता है?
होता नहीं जिसमें ज़लल, ना ही बुरी कोई रविश।

मैं सोचता हूँ, गर्दिश-ए-आयाम को हम भूलकर,
फिर, इब्तिदा करते किसी ऐसे जहाँ में, इश्क की,
जिसमें छलकती आरज़ू, जिसमें खटकता इज़्तिराब,
जिसमें विसाल-ए-यार हो, जिसमें उरूज-ए-खल्क हो,
जिसमें नहीं कुछ कश्मकश, जिसमें नहीं कुछ जुस्तुजू,
बे-गैरती ना हो जहाँ, कुछ ‘आरज़ी ना हो जहाँ,
ये मस’अले ना हो जहाँ, ये हसरतें ना हो जहाँ ।

मैं सोचता हूँ, हो कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता,
मैं सोचता हूँ, है कोई ऐसा जहाँ बे-साख्ता?

ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,

कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है। 

जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,

मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।

ग़ज़ल- जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़

जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़,
और सोचता हूँ मैं हूँ कहाँ जहाँ को छोड़।

जो गुजरने वाले थे वो गुज़र गए जानाँ,
वो तराना मिटटी में मिल गया जहाँ को छोड़।

है शिकस्त अपनी उलफ़त की मैं कहूँ तो क्या,
छोड़ आया था मैं अपना गुमाँ, जहाँ को छोड़।

अब ज़वाल का अपने मैं मु’आइना कर लूँ,
ग़म-गुसार, हमको क्या ना मिला जहाँ को छोड़।

परिंदे

परिंदे उड़ा नहीं करते आज-कल, यूँ ही घोंसलों में मुन्तज़िर बैठे रहते हैं, तकते रहते हैं इक राह, कि कब, कोई, आये जिसके सहारे से ज़िन्दगी शुरू हो..

हमें आप फिरसे बुला लीजे जानाँ

हमें आप फिरसे बुला लीजे जानाँ,
करे फैसले क्या, बता दीजे जानाँ।
है तारीक अब भी भला क्यूँ ये कमरा,
ज़रा इसमें दीये जला दीजे जानाँ।
फिर एक आम सी बात पर होगा झगड़ा,
सो, सारे तअल्लुक भुला दीजे जानाँ।
मुझे है ग़म-ए-ज़ीस्त से खौफ़ सा कुछ,
मुझे आप इससे बचा लीजे जानाँ।
तरावत जो दीदों में है, आप उससे,
ये तरतीब फिरसे सजा लीजे जानाँ।
ये जो रम्ज़ है आपकी नज़रों में ना,
आप इसे सबसे छुपा लीजे जानाँ।
गुज़रने लगा हूँ मैं अपनी हदों से,
ज़रा मुझपे तोहमत लगा दीजे जानाँ।
-क़लमकश

गरल

नत- मस्तक हो वंदन करता हूँ उसको,
वह गरल कि जो हृद‌य में है फलता ।
कालजयी भी जिसे, शत-शत शीश नवाए,
वह, सदा जो अहंकार – मद में पलता ।

ग़ज़ल- एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो

एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।

मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।