ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है

पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,

कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है। 

जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,

मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।

ग़ज़ल- जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़

जानिब-ए-’अदम को मैं बढ़ चला जहाँ को छोड़,
और सोचता हूँ मैं हूँ कहाँ जहाँ को छोड़।

जो गुजरने वाले थे वो गुज़र गए जानाँ,
वो तराना मिटटी में मिल गया जहाँ को छोड़।

है शिकस्त अपनी उलफ़त की मैं कहूँ तो क्या,
छोड़ आया था मैं अपना गुमाँ, जहाँ को छोड़।

अब ज़वाल का अपने मैं मु’आइना कर लूँ,
ग़म-गुसार, हमको क्या ना मिला जहाँ को छोड़।

ग़ज़ल- एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो

एसी कहाँ किस्मत कि नसीबों में शिफा हो,
राहत जो नहीं रोग से गर फिर तो कज़ा हो।

मैं जानता हूँ ये जो शब-ए-ग़म की कसक है,
है चाह तुझे भी ज़रा ये दर्द पता हो।