ग़ज़ल- पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है
पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,
कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है।
जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,
मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।
पीता नहीं मगर मुझे आदत अजीब है,
कहता हूँ मैं जहाँ से मुहब्बत अजीब है।
जो रोग दिल को है लगा उसकी कहूँ मैं क्या,
मैं क्या कहूँ ये दिल भी न हज़रत अजीब है।
है हर इक ख्वाब वाबस्ता उसी से,
मुहब्बत है शुरू होती यहीं से।
तबीयत आज कुछ अच्छी नहीं है,
है शायद हाल ये तेरी कमी से।
दिल-ए-मुज़्तर, दिल-ए-नाशाद, ये नाराज़गी कैसी,
न रंज हो, ना सितम, ना ठोकरें तो ज़िंदगी कैसी।
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